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कन्या भ्रुण हत्या
कब थमेगा कन्या भ्रूण हत्या का सिलसिला--- ऐ इंसान यह तू क्या कर रहा है माँ को कोख में ही मार रहा है |||||| अभी हाल ही में टीवी पर आमिर खान का नया शो सत्यमेव जयते शुरू हुआ जिस में पहला विषय जो उठया गया उससे सम्बंधित वास्तविक सत्य जो सामने आये वास्तव में दिल को दहलाने वाले थे कुछ पल के लिए ऐसे लगा की इसने समस्त देश को एक लम्बी नींद से जगा दिया है। ये सत्य देश के लोगों और सरकार की बरसों से बंद आंखें खोलने के लिये पर्याप्त है।इतनी गंभीर समस्या पर सरकार भी अभी तक ठोस और सार्थक कदम नहीं उठा पाई और समाज भी उदासीन रहा । सबसे जयादा कटु सत्य जो सामने आया जिसकी जानकारी शायद अभी तक शायद आम आदमी को नहीं थी वो यह की इस जघन्य अपराध की शुरुवात जीवन रक्षक कहे जाने वाले डॉक्टरों के द्वारा ही की गयी थी । यह ७० के दशक की बात है जब देश में जनसँख्या को रोकने के उपाय ढूंढें जा रहे थे तब यह सुझाव "अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सालय (AIIM, New Delhi) के डॉक्टरों ने दिया की अगर जनम से पहले गर्भ में ही लिंग की जांच कर ली जाये तो जिन्हें बेटी की चाह नहीं है वो गर्भ को गिरा सकते है इस तरह बेतहाशा जनसख्या की बढ़ोतरी पर काबू पाया जा सकेगा । लेकिन शायद तब वो इसके दूरगामी परिणामो से रूबरू नहीं थे और इसी सोच के चलते भारत में पिछले 20 सालों में कम से कम सवा करोड बच्चियों की भ्रूण हत्या की गई है ।सन 2011 की सेन्सस रिपोर्ट के अनुसार भारत में लिंग अनुपात १००० लड़कों पर सिर्फ 914 लड़कियां रह गया है जब की यही अनुपात सन २००१ में 1000 लड़कों पर 943 लड़कियों का था । तेजी से गिरता हुआ यह अनुपात चिंता का विषय है । इस समय स्त्रियों की कमी का कारण ‘कन्या भ्रुण हत्या’ को माना जा रहा है जिसमें उसके जनक माता, पिता, दादा, दादी, नाना और नानी की सहमति शामिल होती है। यह संभव नहीं है कि कन्या भ्रूण हत्या में किसी नारी की सहमति न शामिल हो। संभव है कि नारीवादी कुछ लेखक इस पर आपत्ति करें पर यह सच नहीं बदल सकता क्योंकि हम अपने समाज की कुरीतियों, अंधविश्वासों और पाखंडों को अनदेखा नहीं कर सकते जिसमें स्त्री और पुरुष समान रूप से शामिल होते दिखते हैं।यह विडंबना ही है कि जिस देश में कभी नारी को गार्गी, मैत्रेयी जैसी विदुषी महिलाओं के रूप में सम्मान प्राप्त हुआ, वहीं अब कन्या के जन्म पर परिवार और समाज में दुख व्याप्त हो जाता है l सिर्फ बेटे की चाह में अनगिनत मांओं की कोख उजाड़ दी गई l भ्रूण हत्या का कारण है कि हमारे समाज में व्याप्त रुढ़िवादिता और लोगों की संकीर्ण मानसिकता और समाज में कायम अन्धविश्वास के कारण लोग बेटा बेटी में भेद करते हैं l अगर देखा जाये तो ईश्वर कितना भी निराकार क्यों न माना जाये, रहता वह पुरुष ही है। और किसी के मस्तक कटने की बात आती है तो वह मस्तक देवी, औरत का ही होता है। इस धारणा को धरम ने बहुत मजबूत कर दिया गया है। इतना कि उसे पलटने की बात हो तो पुरुष से ज्यादा तकलीफ औरत को ही होने लगती है l अगर सामाजिक परिस्तिथियाँ इसको बढावा देने के लिए जिमेन्दार समझी जाती है तो शायद इस अपराध का जनम दाता धर्म ही हो l बेटी को पूज्यनीय दुर्गा , लक्ष्मी, सरस्वती स्वरूपा , या माता के समान उपमा भी धर्मों ने दी और धर्मों ने ही संस्कारों के नाम पर जकड़न की जंजीरें उसके गले में बांधी हैं। पुत्रों को अनुचित महत्व देना हमारे पितृ-सत्ताक पद्धिति की देन है । श्राध्दों में जब तक पुत्र तिलांजली और जल नही देगा पितरों का उध्दार जो नही होगा । धर्म की इन्ही जकड़नों को तोड़ने के लिए महिलाओं को आज खड़ा होना पड़ेगा l ज्यादातर मांबाप सोचते हैं कि बेटा तो जीवनपर्यत उनके साथ रहेगा और बुढ़ापे में उनका सहारा बनेगा l समाज में वंश परंपरा का पोषक लड़कों को ही माना जाता है l इस पुत्र कामना के चलते ही लोग अपने घर में बेटी के जन्म की कामना नहीं करते l बड़े शहरों के कुछ पढ़ेलिखे परिवारों में यह सोच थोड़ी बदली है, लेकिन गांवदेहात और छोटे शहरों में आज भी बेटियों को लेकर पुराना रवैया कायम है l लड़कियों की भ्रूण हत्या जिन कारणों से होती है, उसके लिए लड़कों की चाहत से लेकर और अनेक कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण औरत सामाजिक तौर पर दोयम दर्जे पर माना जाना l हमारा भारतीय संविधान देश में रहने वाले प्रत्येक इंसान स्त्री हो या पुरुष को शत-प्रतिशत बराबरी से जीवन जीने का अधिकार देता है। फिर क्यों आज भी बेटे की चाहत में बेटी को जन्म लेने ही नहीं दिया जाता है या पैदा होते ही मार दिया जाता है, क्यों बेटी को को एक सामान्य नागारिक की तरह जीने, पढ़ने, बढ़ने, अपनी दुनिया खुद गढ़ने का अधिकार नहीं मिला l हमने क्या कभी ये सोचा कि कोख से संसार तक यानी छोटी से छोटी बालिका और बूढ़ी से बूढ़ी महिला का जीवन और सम्मान का हर पल क्षण खतरों से क्यों घिरा रहता है। क्यूं वह घर -बाहर असुरक्षित है, क्यों वह लगातार हर जगह निरंतर चिंता और तनाव का शिकार रहती है। इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए गत कुछ वर्षों से कुछ चिंता व्यक्त की जाने लगी है। उपाए के तौर पर बहुत से कदम भी उठाये गए है l जहां तक क़ानून की बात है, विडम्बना यह है कि अपराध तीव्र गति से आगे चलते हैं और क़ानून कछुए की चाल स काफ़ी दूरी पर पीछे-पीछे l फिलहाल तो स्थिति यह है कि लोगों में पुत्र की बढ़ती लालसा और खतरनाक गति से लगातार घटता स्त्री-पुरुष अनुपात समाजशास्त्रियों, जनसंख्या विशेषज्ञों और योजनाकारों के लिए चिंता का विषय बन गया है l UNICEF के अनुसार दस प्रतिशत महिलाएं विशव जनसंख्या से लुप्त हो चुकी है l स्त्रियों के इस विलोपन के पीछे कन्या भ्रूण हत्या ही मुख्य कारण है । कन्या के बिना दुनिया का कैसे वीभत्स स्वरूप होगा, इसकी कल्पना से ही डर लगता है। इसके बगैर जेनेटिक उत्थान तो बेमानी है साथ ही में लिंग अनुपात में असंतुलन से सैक्स अपराधों से बहरी हुई भयानक दुनिया विकसित होगी। कन्या भ्रूण हत्या के दूरगामी परिणामो से शायद आज का समाज अवगत नहीं है l यहाँ मैं इससे भी हृदयहीन और भयानक सच औरतों की खरीद-फरोख्त का बच्चे पैदा करनेकराने का जो कारोबार चल रहा है उसका जिक्र करना चाहूंगी । नागपुर से लेकर जबलपुर तक का जो आदिवासी क्षेत्र है वहां से शहरों को ले जायी जा रही आदिवासी लड़कियों के सैकड़ों मामले सामने आते हैं l लड़कियों को घरेलू कामकाज की नौकरियां दिलाने के नाम पर ले जाया जाता है। इनमें से कई देश विदेश में देह व्यापार के अड्डों तक भी पहुंचायी जाती हैं l पिछले गत वर्षों में पंजाब और हरयाणा में जहाँ भ्रूण हत्या के सबसे जयादा मामले होते है वहां औरतों की कमी पूरी करने के लिए इन लड़कियों को शादी के लिए खरीदा जाता है। फिर उनसे जब बेटे पैदा करा लिये जाते हैं, तो बेटों को अपने पास रख कर उन्हें या तो छोड़ दिया जाता है, या फिर किसी और को उसी काम के लिए बेच दिया जाता है। इसके लिए जिमेदार क्या सिर्फ डॉक्टर है जो इस हत्या को अंजाम देता है या वो मातापिता जो बेटे को पाने की चाहत के साथ उनके पास जाते है l क्या इस जघन्य अपराध को सिर्फ कड़े कानून बना उन डॉक्टरों को सजा दे कर रोका जा सकता , शायद नहीं जब तक हम अपनी सदियों पुरानी संकीर्ण मानसिकता से बहार नहीं निकलेगे तब तक इस समस्या का हल नहीं हो सकता l जरुरी है आज अपनी सोच बदलने की , बेटियों को भी बेटों की तरह अधिकार देने की , मत सोचो की उसके हाथों में मेहँदी रचानी है , अपितु उसके हाथों में कलम पकड़ा कर उसे शिक्षित करने की , उसे भी इतना शिक्षित बनाइये की वह अपने पैरों पर खुद खडी हो सके l थोडा सा सामाजिक धारा बदलिए और फिर देखिये बेटियां बेटों से जयादा देखभाल करेंगी , उन्हें मौका तो दीजिये l उन्हें सिर्फ घर की लक्ष्मी या देवी कह देने से उसे उसके अधिकार और सम्मान नहीं मिल जाते l इस संधर्भ में सामाजिक कार्यकर्ता कुमुद सिंह जो बेटियों की जिंदगी की बेहतरी को लेकर लड़ रहीं है उनकी यह पंक्तियाँ बहुत ही सार्थक लगती है क्योंकि देवियाँ कभी स्थापित कर दी जाती है और कभी विसर्जित इसीलिए मेरी बेटी में तुझे कभी देवी नहीं बनाउंगी यह स्थिति बेहद खतरनाक और अवांछनीय भी । वक्त रहते इस बारे में कुछ ठोस कदम उठाना जरूरी है । एक सवाल हमेशा मन को क्टोचता रहेगा की कोख में कन्याओं की हत्या धार्मिक बंधन है, सामाजिक कुरीति है या मन की बेटा पाने की लालसा -- आत्मचिंतन का विषय है । प्रशांत नाइक (ई एन टी सी 2nd यिअर) |